स्वामी दयानंद सरस्वती चक्रांकित मतानुयायी राव कर्ण सिंह को कहा, "तुमने क्षत्रियों का धर्म छोड़कर यह भिखारियों का चिह्न (तिलक) अपने मस्तक पर क्यों धारण किया है ? यदि शस्त्र से हमला करना चाहते हो तो उदयपुर, धौलपुर के राजाओं से जाकर लड़ो । यदि शास्त्रार्थ करना चाहते हो तो अपने गुरु वैष्णवाचार्य रंगाचार्य को बुला लाओ ।"
# राव कर्णसिंह ने कहा, "आप गंगा जी को नहीं मानते ?"
स्वामी दयानंद जी ने कहा, "हम लोगों की (संन्यासियों की) गंगा तो हमारा कमण्डल ही है । यही हमारी गंगा (जल का पात्र) है । गंगा का पानी पीने के लिए है । इससे मोक्ष नहीं मिलता । मोक्ष तो शुभकर्मों से प्राप्त होता है |"
# हाथ की रेखाओं से भविष्य कथन करने की बात पूछने पर ऋषि दयानंद ने बताया, "हथेली में तो हाड़, चाम और रुधिर है और कुछ नहीं ।"
जन्मपत्र के बारे में कहा, "जन्मपत्रं किमर्थम् कर्मपत्रं श्रेष्ठम् | जन्मपत्र बेकार है । कर्म ही श्रेष्ठ है ।"
# अनूपशहर में मूर्तिपूजा के खण्डन से रुष्ट होकर एक ब्राह्मण ने स्वामी दयानंद सरस्वती को पान में विष दे दिया । सैय्यद मोहम्मद तहसीलदार ने उसे पकड़ लिया और स्वामी दयानंद जी के सम्मुख प्रस्तुत किया ।
स्वामी विषदाता को क्षमा कर दिया और कहा, "मैं संसार को बन्दी बनाने नहीं अपितु बन्धन से छुड़ाने आया हूँ । यदि दुष्ट आदमी अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ता तो हम अपनी श्रेष्ठता को क्यों त्यागें ।"
# नये - नये मुसलमान बने धर्मपुर के एक जमींदार ने स्वामी दयानंद जी से पूछा, "हम किस प्रकार शुद्ध हो सकते है ?"
स्वामी जी का उत्तर था, "वेदानुकूल आचरण करो , स्वयमेव शुद्ध हो जाओगे ।"
# ग्रहण से सूतक नहीं मानना चाहिए ..
कर्णवास निवास के समय एक बार सूर्यग्रहण हुआ । उस समय एक सज्जन ने स्वामी दयानंद से पूछा, "आज ग्रहण है सूतक किस समय तक मानना चाहिए ?"
महर्षि ने उत्तर दिया, "सूतक कोई चीज नहीं है ।"
पुनः पूछा, "ग्रहण में भोजन कब करें ।"
स्वामी दयानंद ने कहा, "जब भूख लगे तब भोजन करो ।"
# अनूपशहर में जब लोग गंगा किनारे आकर पूर्वजों का तर्पण करते हुए पितरों को जल देने लगे (गंगा का जल गंगा में छोड़ने लगे) महर्षि दयानंद सरस्वती ने कहा, "अरे मूर्खो ! जल में जल मत डालो । यदि जल डालना ही है तो किसी वृक्ष की जड़ में डालो ताकि वृक्ष बढ़े ।"
# एक व्यक्ति ने स्वामी दयानंद सरस्वती को दण्डवत् कहा । ऋषि दयानंद जी ने कहा 'नमस्ते ' करना उचित है ।
# यज्ञोपवीत ग्रहण करने में आलस्य और कंजूसी क्यों करते हो ?
सोरों में स्वामी दयानंद जी ने उपदेश देते हुए कहा, "कितने खेद की बात है कि तुम लोग बूढ़े पिता या दादा के मरने पर मृत्युभोज में हजारों रुपये खर्च करते हो किंतु आर्यत्त्व के प्रतीक यज्ञोपवीत ग्रहण करने के लिए दो रुपये खर्च करने में आनाकानी करते हो । यज्ञोपवीत ग्रहण करने का शास्त्रनिर्दिष्ट काल टल जाने पर भी यथाशक्य यह संस्कार अवश्य करवाना चाहिए क्योंकि "यथाकथञ्चित् धर्मो रक्षणीयः " येन केन प्रकारेण धर्म की रक्षा होनी चाहिए ।
# ईश्वरभक्ति अकर्मण्यता का नाम नहीं .......
बाबा गोविन्ददास ने जब यह उपदेश दिया कि 'हरि भजो छोड़ दो सब धन्धा' |
इस बात का महर्षि दयानंद सरस्वती ने प्रतिवाद करते हुए कहा, "भक्ति के नाम पर सब शुभ कर्मों को छुड़ाने का उपदेश देना अनुचित है । क्या हम नित्य के कर्मों को छोड़ सकते हैं ? कदापि नहीं ।"
....... संकलन |