* तंतुं तन्वन् रेसों भानुमन्विहि ज्योतिष्मत: पदों रक्षा दिया कृतान् ।
अनुवर्तन व्रत जोगुवामपो मनुर्भव जनता दैव्यं जनम् ।।
अर्थ :- हे मनुष्य! जीवन के ताने-बाने को तनते बुनते हुए तू आकाश के सूर्य का अनुसरण कर, बुद्धि द्वारा बनाए गए प्रकाशमान रास्तों की रक्षा कर, उपासक ओके कर्मों को आगे बढ़ा, मनुष्य बन, दिव्य गुण कर्म स्वभाव वाली संतान उत्पन्न कर ।
प्रत्येक मनुष्य एक तंतु बाय के समान है। जैसे जुलाहा सूत से ताना-बाना बनाता है ,वैसे ही मनुष्य भी प्रवृत्तियों और संस्कारों से जीवन रूपी वस्त्र को तैयार करता है। मनुष्य जो भी कर्म करता है उसका सूक्ष्म प्रभाव उसके मन पर अंकित होता है। यह सूक्ष्म प्रभाव संस्कारों और प्रवृत्ति की संज्ञा धारण करते हैं। इन्हीं संस्कारों और प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर मनुष्य फिर कर्म करता है। मनुष्य के इस जीवन में यह चक्र इसी प्रकार चलता रहता है। मनुष्य के जैसे संस्कार और जैसी प्रवृतियां होंगी, वैसे ही वस्त्र तैयार किया जाएगा।यदि मनुष्य अच्छी प्रवृत्तियों और अच्छे संस्कारों को लेकर चलता है तो जीवन रुपए वस्त्र अच्छा तैयार होगा।यदि बुरी प्रवृत्तियों और बुरे संस्कारों को लेकर जलता है तो जीवन रूपी वस्त्र बुरा बनेगा। अब यह मनुष्य पर निर्भर है कि वह सत्प्रवृत्तियों का संग्रह करे अथवा दुष्ट प्रवृत्तियों का। वेद का उपदेश सत्प्रवृत्तियों के संग्रह की और ही है, ताकि मनुष्य जीवन का निर्माण सुंदर रूप से हो सके।
वेद मंत्र मनुष्य को आदेश देता है कि तू जीवन के ताने-बाने को तनता- बुनता हुआ आकाश के सूर्य का अनुसरण कर अर्थात सूर्य के गुणों को धारण कर। सूर्य उदय होने के पश्चात ऊपर को उठता है, अतः मनुष्य को ऊपर उठने का उद्देश्य सूर्य से ग्रहण करना चाहिए।मनुष्य को जीवन में सदा उन्नति की ओर अग्रसर होना चाहिए जैसा कि अथर्ववेद में मंत्र में कहा गया है -
उद्यानम् ते पुरुषम नावयानम् । (अथर्व-८/१/६)
अर्थ :- हे मनुष्य ! तुझे जीवन में ऊंचा उठना है, नीचे नहीं गिरना है। जैसे सूर्य ऊपर उठकर संसार को प्रकाश देता है, वैसे ही मनुष्य को भी ऊपर उठकर दूसरों को प्रकाशित करना होगा। दूसरों को जान से प्रकाशित करना सूर्य की दूसरी शिक्षा है। जो व्यक्ति दूसरों को पथ प्रदर्शन द्वारा, सत्प्रेरणा द्वारा और ज्ञान प्रदान द्वारा प्रकाशित करता है, वही सच्चा मनुष्य है।
अगली बार कहता है कि बुद्धि द्वारा बनाए गए प्रकाशमान रास्तों की रक्षा कर। बुद्धि किन के पास होती है? बुद्धिमान के पास। बुद्धिमान ने अपनी बुद्धि से रास्तों को बनाया, तू उसकी रक्षा कर। रास्ते कौन से? यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि रास्ता कौन सा है ? उन्होंने उत्तर दिया की :-
महाजनो येन गत: से पन्था।।
जिस रास्ते से महापुरुष गए हैं, वही रास्ता है। अर्थात हमें भी महापुरुषों के समान सन्मार्ग का अनुसरण करना चाहिए ।
अगली बात वेद कहता है कि "मनुर्भवतु" तू मनुष्य वन । जब तुम मनुष्य बन जाए तो संतान अथवा समाज को दिव्य गुण युक्त बना। जब कोई जैसा बन जाता है तो वैसा ही दूसरे को बना सकता है। जलता हुआ दीपक ही बुझे हुए दीपक को जला सकता है। बुझा हुआ दीपक भला बुझे हुए दीपक को क्या जलाएगा? मनुष्य का कर्तव्य है कि स्वयं मनुष्य बने और दूसरों को मनुष्यत्व की प्रेरणा दे। स्वयं अच्छा बने और दूसरों को अच्छा बनाए। यदि मनुष्य स्वयं तो अच्छा बनता है, परंतु दूसरों को अच्छा नहीं बनाता तो उसकी साधना अधूरी रह जाती है।यदि स्वयं तो अच्छा है परंतु अपनी संतान को अच्छा नहीं बनाता तो वह अपने लक्ष्य में आधा सफल होता है। अतः -
जो सीखो किसी को सिखाते चलो। दिए से दिए जलाते चलो ।।
वास्तव में मानव की मानवता ही उसका आभूषण है। वेद मनुष्य को उपदेश देता है कि तू मनुष्य वन। कोई कहता है मुसलमान वन कोई कहता है तू इस आई वन। कोई कहता है तो वह बौद्ध वन। परंतु वेद कहता है तू मनुष्य वन। यह और इस जैसी विशेषताएं वेद के आसन को अन्य धर्म ग्रंथों के आसन से बहुत ऊंचा उठा देती है। वेद का उपदेश संकीर्णता और संकुचितता से परे है । वेद का उपदेश सभी स्थानों, सभी कालों और सभी मनुष्यों पर समान रूप से लागू होता है।
जब संसार में यह वेदों प्रदेश चरितार्थ था तब संसार में मानव वस्तुतः मानव था। मानवता का भेद करने वाले कारण उपस्थित नहीं थे -
गुलशने-हस्ती में यकरंगी का आलम आम था।
पहले सिर्फ इक कौम थी इंसान जिसका नाम था ।।
संसार रूपी बाग में जब तक एकरूपता की दशा थी तब तक संसार में एक ही जाती थी जिसका नाम मानव जाति था।
संसार में जितने जलचर, नभचर और भूचर हैं, उनमें से सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य की शरीर रचना, अन्य प्राणियों से अति श्रेष्ठ है। उसे बुद्धि से विभूषित करके परमात्मा ने चार चांद लगा दिए।संसार के सभी विद्वानों का इस बात पर एकमत है कि मनुष्य से अतिरिक्त और कोई श्रेष्ठ प्राणी संसार में नहीं है।
महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में बहुत ही सुंदर कहा है :-
गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि नहि मनुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् ।
अर्थ :- मैं तुझे यह परम रहस्य की बात बताता हूं कि संसार में मनुष्य से बढ़कर और कुछ नहीं है। वास्तव में यह एक रहस्य की बात है।
शतपथ ब्राह्मण कार ने बहुत ही सुंदर कहा है :-
पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम् ।
अर्थात प्राणियों में से मनुष्य परमेश्वर के निकटतम है।अन्य कोई प्राणी परमेश्वर की इतनी निकटता को प्राप्त किए हुए नहीं है जितनी कि मनुष्य है।परमात्मा ने मनुष्य को इतना साधन संपन्न बनाया है कि यदि वह ऊंचा उठना चाहे तो उसकी कोई सीमा नहीं, यदि गिरना चाहे तो उसकी भी कोई सीमा नहीं।
मनुष्य में मनुष्यत्व :-
कामवासना की विजय मनुष्यत्व का एक बहुत बड़ा लक्षण है। जिसने कामवासना को जीत लिया वह वास्तव में महापुरुष बन गया। भीष्म पितामह, हनुमान, सुखदेव, शंकराचार्य और महर्षि दयानंद इस कोटि में आते हैं । महर्षि दयानंद जी के व्यक्तित्व के कारण आर्य समाज ने अनेक महापुरुषों को जन्म दिया, जिन्होंने काम को बस में करके अखंड ब्रह्मचर्य को धारण किया। सांसारिक मानसिक बौद्धिक और आध्यात्मिक उन्नति का यह एक बहुत बड़ा साधन है। मानसिक पवित्रता और आध्यात्मिक निर्मल लता का यह बहुत बड़ा आधार है। विवाह से पूर्व वीर्यपात ना हो, इसके लिए काम चेष्टा उनका ना देखना, काम ही पुरुषों का संग ना करना और अश्लील बातों का ना सुनना परम सहायक होते हैं। इन्हीं के कारण व्यक्ति हस्तमैथुन, स्वप्नदोष, गुदामैथुन और पर स्त्री गमन से बचता है। जहां उपर्युक्त तीन कारण सहायक होते हैं, वहां पर -स्त्री मैं मातृ भाव की भावना रखना भी आवश्यक है । काम की विजय का मूलमंत्र यही है कि कोई बुरा विचार मस्तिष्क में ना आने दिया जाए।
क्रोध पर विजय मनुष्यत्व का दूसरा साधन है । क्रोध पर विजय का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति में क्रोध आए ही नहीं, बल्कि इसका आशय यह है कि व्यक्ति हर समय क्रोध का सहारा ना लें। जिसका मस्तिष्क जितना ठंडा होगा, उसकी वाणी से उतना ही प्रेम और मीठा पन प्रकट होगा। लोकप्रियता के लिए मस्तिष्क की शीतलता और वाणी की मीठा पन बहुत आवश्यक है।
मनुष्यत्व का एक अन्य साधन लोक पर विजय है। लोहे व्यक्ति हर समय परेशान रहता है। उसकी आत्मा में हर समय बेचैनी रहती है। उसके मस्तिष्क की शांति और आंखों की नींद इसके कारण उड़ी रहती है। लूपर विजय का उपाय संतोष है। मनुष्य मनोयोग से परिश्रम करें और जो फल प्राप्त हो उस पर प्रसन्न हो जाए, इसी का नाम संतोष है। महर्षि पतंजलि ने योग शास्त्र में लिखा है -
संतोषादनुत्तमसुखलाभ: ।
अर्थात संतोष से उत्तम सुख की प्राप्ति होती है।
सुख की इच्छा करने वालों को संतोष का आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि संतोष सुख का मूल है और असंतोष दुख का कारण है। यह मनु का वचन है।
मनुष्यत्व का एक साधन है मोह पर विजय। जिन वस्तुओं के साथ अपनेपन का संबंध हो जाता है, उनके साथ यह अपनेपन का संबंध ही मुंह का रूप धारण कर लेता है। उस मनुष्य के सम्मुख बड़ी विचित्र स्थिति उपस्थित हो जाती है। यदि वह संसार के पदार्थों से लगाव ना रखे तो निर्वाह नहीं हो पाता -
बेहतर तो है यही कि ना दुनिया से दिल लगे ।
पर क्या करें जो काम न बेदिल्लगी चले ।।
संसार के पदार्थों से दिल लगाए बिना काम नहीं चलता, परंतु जब दिल लग जाता है तो यह मोह दुखदाई हो जाता है।
मनुष्यता का एक और साधन है अहंकार पर विजय। जब मनुष्य के मस्तिष्क पर अहंकार का आक्रमण होता है तो वह अपना संतुलन खो बैठता है। वह अपना अति मूल्यन आरंभ कर देता है और अपने आप को बहुत कुछ समझने लगता है। जिससे जो है मनुष्य की बहुत हानि होती है।
मनुष्य मनुष्य किस प्रकार कहलाए, मनुष्य के लक्षण क्या है, एक मनुष्य किस प्रकार की व्यवहार करें और मनुष्य में मनुष्यता कैसे आए , इन विषयों पर विद्वानों का अलग-अलग मत है । वह निम्नलिखित है :-
बुद्धारो मत्सरग्रस्ता: प्रभव: स्मय दुषिता: । अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम् ।।
जो विद्वान है, ईर्ष्या से भरे हुए हैं । जो धनवान हैं, उनको अपने धन का गर्व है। इसके अतिरिक्त जो और लोग हैं, बे अज्ञानी है। इसलिए उत्तम काव्य शरीर में ही नष्ट हो जाता है, अतः अच्छाई अथवा अच्छे कार्यों का समर्थन मनुष्यता का लक्षण है।
निंदंतु नीति निपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मी: समावेशन्तु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
अद्येव वा मरणमस्तु युगांतरे वा, न्यायात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा: ।।
चाहे नीति निपुण व्यक्ति हमारी निंदा करें या चाहे स्तुति करें, लक्ष्मी अर्थात धन-संपत्ति रहे चाहे ना रहे, आज ही मर ना हो चाहे एक युग के पश्चात मरना हो, धीर पुरुष न्याय के रास्ते से विचलित नहीं होते हैं।
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