अंतर्दृष्टि खुली हो तो प्रत्येक अंत ही अनंत के दर्शन का द्वार है। अंदर की आंख के खुलने पर ही दिखने लगता है कि जगत में जिसका आरंभ है, उसी का अंत है। जिसका आरंभ नहीं है, उसका अंत भी नहीं है, वही अनंत है। आनंद परमात्मा में ही और गणित आरंभ और अंत चलते रहते हैं। अनंत परमात्मा से विमुख रहने के कारण ही अंत में मृत्यु का भय है, उसी की चिंता है और प्रत्येक सुख के अंत में दुख है। हमारे सामने जितने भी आरंभ है,वे सभी अंत की ओर बढ़ते जाते हैं, इसीलिए हम अशांत होते हैं। अंतरात्मा निरंतर शांति की प्यासी है, परंतु हमारे साथ क्षुद्र अहंकार अपनी कृतियों से अशांति में ले जाता है। अहंकार सदैव वासना, कामना, महत्वाकांक्षा की पूर्ति की ही तैयारी में लगा रहता है, अंत में महत्वाकांक्षा ही संताप का मूल कारण बनती है । जहां से वासना, कामना, महत्वकांक्षा का अंत होता है, वहीं से सास्वत शांति का द्वार खुल जाता है।
आरंभ में हम जो कुछ भी देखते हैं, उसी में मुक्त होकर उसके अंत को भूल जाते हैं। तभी आने वाले अंत से अशांत - दुखी होकर पुनः आरंभ की ओर लौटते हैं और ना चाहते हुए पुनः अंत का दुख भोगते हैं ।
तृष्णा एवं भयावस जो मानव स्वयं में अशांत नहीं है, वही अस्वस्थ है। जो अस्वस्थ है वही आरंभ से ही लोभी, मोही, कामी और महत्वाकांक्षी होता है। जब तक अनंत का योगा अनुभव नहीं होता, तब तक महत्वाकांक्षी दूसरों की दृष्टि में संपन्न श्रेष्ठ होते हुए भी स्वयं अशांत रहता है, क्योंकि संसार में जो कुछ भी प्राप्त होता है उसी का अंत होता है। जीवन में जिसका भी संयोग हुआ है, उसका अंत वियोग में होगा । वियोग रूपी अंत होने पर पुनः संयोग की कामना न की जाए, तव वियोग का अंत नित्य अनंत परमात्मा के योग में होता है । प्रत्येक सुख का अंत दुख में होता है, यदि दुख रूपी अंत को देखकर अपने सांसारिक सुख की इच्छा का त्याग कर दिया जाए तो उस दुख का अंत शास्वत शांति में होता है । शरीर का अंत मृत्यु में होता है, यदि मृत्यु रूपी अंत होने के पहले ही अनंत जीवन को जान लिया जाए, तब मृत्यु का अंत मुक्ति में होता है। जो मनुष्य अंत आने के पहले ही अंत को जान लेता है, वही अनंत के नित्य योग की तैयारी करता है। जो अंत से डरकर आरंभ की ओर लौटता है, वह अंत के भय से कभी मुक्त नहीं हो पाता । प्रत्येक अंत उस अनंत का संदेश दे रहा है, पर अंतवान् का रागी, मोही, लोभी मनुष्य उस संदेश के प्रति सावधान नहीं होता। बिनाशी शरीर में रहने वाले अविनाशी आत्मा को देखो, उसे ही जानो। नाशवान सृष्टि में व्यापक और सृष्टि के संचालक परमात्मा को देखो, उसे ही जानो। जहां किसी प्रकार का आरंभ दिखता है, वही किसी रूप का अंतिम होता है। प्रत्येक आरंभ के साथ ही अंत है और प्रत्येक अंत के आगे आरंभ है। आरंभ और अंत के मध्य में जो निरंतर विद्यमान है, वही अनंत है। आरंभ और अंत के मध्य में अनंत की अनुभूति की साधना ही"संध्या उपासना"कही जाती है । प्रायः लोग संध्या का आरंभ करते हैं, और कुछ देर में संध्या का अंत भी कर देते हैं, पर अनंत के साक्षात की तैयारी नहीं करते। ज्ञान विज्ञान वेत्ता के लिए प्रत्येक संधि परमात्मा के दर्शन का द्वार है। अंत समय में जो पुरुष अनंत अविनाशी परमात्मा को स्मरण करते हुए अंत होने वाली वस्तु तथा अवस्था अथवा दुखद सुखद परिस्थिति से अलग हो जाता है, वही परमात्मा का योगी होता है। परंतु अंत समय में परमात्मा का स्मरण करना उसी के लिए सुगम होता है, जो आराम से ही निरंतर परमात्मा का स्मरण का अभ्यास दृढ़ कर चुका है।
प्रायः अंत समय में उसी का स्मरण आता है, जिससे प्रकार स्नेह होता है या घूर द्वेष या भय होता है, आवाज जिसका अभ्यास हो । अंत समय में लोभी धन की चिंता करता है, मोही संबंधित व्यक्ति की चिंता करता है, कामिनी अपने सुख सुखद की चिंता करता है। केवल भक्त ही भगवान का चिंतन करता है। भगवान का चिंतन वही करता है, जो आरंभ से ही अपना कुछ ना मानकर सब कुछ के दाता स्वामी केवल भगवान को ही जानता और मानता है।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किंचित जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा: मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ।।
इसका सार सरल शब्दों में मत लाना हो तो हम कहेंगे कि ईश्वर के बनाए और ईश्वर द्वारा नियंत्रित इस जगत की अपने परिश्रम से कमाई हुई मूल्यवान वस्तुओं का आसक्ति से रहित होकर उपयोग करो।उस उपभोग की मस्ती में आकर दूसरों की वस्तुओं को अपनाने का यत्न ना करो और अपनी वस्तुओं की यतन पूर्वक रक्षा करो । इस चराचर जगत में जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है यह सब कुछ परमपिता परमात्मा का ही बनाया हुआ है। अतः इन सब को त्याग पूर्वक भोग करो लालच कभी मत करो।
जिस प्रकार लोभी धन प्राप्ति की और धन रक्षा की तैयारी में तत्पर है, मोहे अपने तथा निजी संबंधियों के शहरों को स्वस्थ बनाए रखने की तैयारी में सदा चिंतित रहता है तथा भोगी सदा सुख सुविधा की सामग्री बढ़ाने की तैयारी में लगा है, उसी प्रकार प्रभु का सच्चा अनुरागी साधक सब के अंत को जानकर अनंत प्रभु के लिए प्यासा होता है और जब श्वास श्वास में साधना चलने लगती है तभी परम प्रभु के योगा अनुभव का अधिकारी बन जाता है। अतः हम संसार के पथिकों को सतत सावधान रहकर सर्वदा परमात्मा का स्मरण करते रहना चाहिए।
इसी प्रकार का अभ्यास नियम पूर्वक करता हुआ साधक जब सत्य, तप, सम्यक ज्ञान और नित्य ब्रम्हचर्य से ब्रह्मा को जान लेता है, तब उसके अंदर ब्रह्म को पूरी तरह अनुभव करने के लिए ब्रह्म के अत्यंत समीप जाने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। ब्रह्म तेजोमय है, उसके बहुत समीप, बिल्कुल पास और सामने पहुंचने पर ज्ञानी पुरुष की वही दशा हो जाती है जो सूर्य की और सीधा देखने से होती है। छाया में बैठकर सूर्य के तेज का चाहे दिनभर वर्णन करते जाओ कोई कठिनाई नहीं होती, परंतु ज्योंही उसके सामने जाकर खड़े हो, आंखें चौंधियां जाएंगी। ऐसे ही जब जीवात्मा परमात्मा की अत्यंत समीप पहुंच जाता है तो वह उस के तेजोमय स्वरूप और अनंत बल को देखकर घबरा जाता है। जो सूर्य को भी तेज देता है जो पृथ्वी को भी चलाता है सारे ब्रह्मांड चक्र को धारण करता और घूमाता है, उसे सामने से देखकर ज्ञानी जीवात्मा यह कह उठता है -
नैतदशक्नुवं ज्ञातुं किमेतद्यक्षमिति
मैं यह जान नहीं सका कि यह यक्ष क्या है ?
उस समय वह अंतर हृदय से निम्नलिखित प्रार्थना करता है -
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्रजापत्य व्यूह रश्मीन् समुह। तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि।
योऽसावसौपुरुष: सोऽहमस्मि ।।
हे संसार भर का पोषण करने वाले, अद्वितीय ज्ञानवान, न्याय कारी, तेज स्वरूप, जगत स्वामी अपनी प्रखर किरणों से समेटो, ताकि मैं आपके कल्याण में मधुर रुप को देख सकूं (अनुभव कर सकूं) कि जो प्राणों में व्यापक ईश्वर है, मैं उससे अभिन्न हूं।(ईश्वर मुझ में है और मैं ईश्वर में हूं)
तब और ब्रम्हचर्य से ब्रह्म ज्ञान की योग्यता प्राप्त किया हुआ मनुष्य जब सच्चे हृदय से ऐसी प्रार्थना करता है तब परमात्मा अपना कल्याणकारी शिव रूप उसके सम्मुख प्रकट करता है ।(अर्थात उसको ज्ञान उत्पन्न होता है, परमपिता की रचना में परमपिता परमात्मा को देखता है)। उस समय जीवात्मा की क्या दशा होती है, उसका वर्णन यजुर्वेद के 40 वें अध्याय के इस मंत्र में किया गया है -
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विचिकित्सति ।।
जो मनुष्य चराचर जगत को परमात्मा में, और परमात्मा को सारे जगत में देखने, अनुभव करने लगता है, उसके मन में कोई संशय नहीं रहता। उसके सब संशय दूर हो जाते हैं।
इस अवस्था में पहुंच जाने पर जीवात्मा अपने को परमात्मा के इतना समीप अनुभव करता है की भिन्नता मिट सी जाती है । जैसे दो अभिन्न मित्रों के विषय में कहा जाता है किस शरीर दो हैं, परंतु आत्मा एक है, और आत्मीय होने पर स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी कहा जाता है, वैसे ही संशयों के निवृत हो जाने पर जीवात्मा, परमात्मा और अपने में भेदभाव रखना छोड़ देता है।
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभद्विजानत: ।
तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत: ।।
जिस समय ज्ञानी जीवात्मा सारे जगत को अपने सब दृश्य देखने, जानने, समझने लगता है उस समय उसमें ना मोह रहता है और ना शोक। वह राग द्वेष से विमुक्त होकर अत्यंत सुख आनंद का अनुभव करने लगता है। उसी दशा को उपनिषदों में (अमृतत्व) कहा गया है ।
जो मनुष्य प्राणी मात्र को समभाव से देखने लगता है, वह समदर्शी कहलाता है।
शोक और मोह का कारण ?
मनुष्य को मोह होता है, उत्कृष्ट वासना से, प्रबल इच्छा से। जिस मनुष्य ने यह जान लिया है कि मनुष्य को कर्म तो करना चाहिए, परंतु उस में लिप्त नहीं होना चाहिए, उसके लिए कर्तव्य ही धर्म बन जाता है, उसका फल अनुषंगिक और गौण हो जाता है । वह निष्काम कर्म को ही अपना परम धर्म मानने लगता है। जब वासना नष्ट हो गई और सकाम कर्म समाप्त हो गए, तो मोह और शोक की आशंका ही कहां रहती है।
भगवत गीता का -
यस्य सर्वेसमारम्भा: कामसंकल्प वर्जिता: ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा: ।।
का यही अभिप्राय है। कर्मों के दग्ध होने का यह अभिप्राय नहीं है किए हुए भले बुरे सब प्रकार के कर्म जल कर नष्ट हो जाता हैं ।
"नाभुक्तं क्षीयते कर्म"
कोई कर्म भोग के बिना नष्ट नहीं होता। किए का फल तो भोगना ही पड़ता है।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतंकर्मं शुभाशुभम् ।
अवश्य ही भोगना पड़ता है , किए हुए कर्म चाहे शभ हो चाहे अशुभ हो ।
ज्ञानी और अज्ञानी में भेद इतना ही है कि अज्ञानी के कर्म अंधकारमय और ज्ञानी के कर्म प्रकाशमय होते हैं ।
विज्ञान - जिस मनुष्य ने विद्या (ज्ञान) और अविद्या (कर्म) की साधना द्वारा मृत्यु को तर लिया, अर्थात मृत्यु के भय को त्याग दिया, वह इस योग्य हो जाता है की आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को पहचान सके और अनुभव कर सके। उस आध्यात्मिक ज्ञान को श्रुति में तथा उपनिषदों में " परा विद्या " या विज्ञान के नाम से निर्दिष्ट किया गया है।
द्वे विद्ये वेदितव्ये, इतिहस्म ब्रह्मविदोवदन्ति ।
परा चैवापरा च ।।
संभूति और असंभूति अर्थात नष्ट होने वाले नित्य आध्यात्मिक पदार्थों तथा अनित्य प्राकृतिक पदार्थों का केवल जानना अपराविद्या है, और स्वात्मा तथा परमात्मा का विशेष ज्ञान जिसका पर्यवसान कर्म में किया गया है वह परा विद्या है । परा विद्या अर्थात सत्य ज्ञान और सत्कर्म के समन्वित रूप को प्राप्त कर के जीवात्मा अपने को परमात्मा के सर्वथा समीप अनुभव करने लगता है, उस दशा को 'उपासना' जीव और ब्रह्म की अत्यंत समीप स्थिति कहते हैं । जैसे विशुद्ध स्फटिक पर वह रंग पूरी तरह प्रतिबिंबित हो जाता है, जो उसके समीप हो, उसी प्रकार जीवात्मा उस अमृत उस आनंद का साक्षात अनुभव करने लगता है, जिसका निवास स्थान ब्रह्म है।
कठोपनिषद में कहां है -
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदिश्रिता: ।
अथ मर्त्योऽमृतो भवति अत्र ब्रह्म समश्नुते ।।
जब मनुष्य हृदय में बैठी हुई सब कामनाओं से छूट जाता है, तब वह अमृत हो जाता है और ' अत्र ' यही ब्रह्मा की समीपता का आनंद प्राप्त करने लगता है।
यहां ' अत्र ' शब्द पर विशेष ध्यान देना चाहिए। कुछ लोग समझते हैं कि इस मानव शरीर के रहते मुखिया अमृत की प्राप्ति संभव नहीं। यह उनका भ्रम है। मनुष्य का शरीर कर्म करने का साधन है। वह इस शरीर के साथ ही अमृत हो सकता है । ब्रह्म के समीप जाने के लिए उसके आनंद का उपयोग करने के लिए, शरीर का त्याग आवश्यक नहीं। जो व्यक्ति ब्रह्म को सर्वव्यापक मानकर और सकाम कर्म का त्याग करके, समभाव से, संसार में व्यवहार करने लगा, उसे योगी कहो या सन्यासी, ब्रह्मज्ञानी कहो या पंडित - सब यथार्थ है। उसने इसी जीवन में अमृत पद को प्राप्त कर लिया। अमृत पद प्राप्त करने वाले जीवात्मा का काया पलट हो जाता है।
अतः हमें परमपिता परमात्मा के सानिध्य को प्राप्त करने हेतु सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।
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