जन्म :-
जिन दिनों देशभर को अंधकार से प्रकाश की ओर लाने का प्रयत्न आर्य समाज के द्वारा चल रहा था,उन दिनों ही वर्तमान हरियाणा के रेवाड़ी नगर के पास गांव सरोली के चौधरी हरदयाल सिंह जी गौर माता फुला देवी जी के यहां सन 1900 ईसवीअप्रैल के महीने मैं एक बालक ने जन्म लिया। इस बालक का नाम रामचंद्र रखा गया। यह बालक अपने पांच भाई-बहनों में तीसरी संतान थी। बाद में संन्यास लेने पर स्वामी सर्वानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए।
शिक्षा :-
बालक रामचंद्र की आरंभिक के शिक्षा गांव में ही हुई तथा फिर झाड़ली और कोसली के स्कूलों में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। बालक राम चंद्र सुंदर वह हंसमुख था। सेवा का भाव इस बालक में आरंभ से ही था। खेलकूद में भी बहुत आनंद अनुभव करता था। इस बालक में उत्तम गुणों भरे हुए थे तथा कभी किसी को गाली तक भी नहीं देता था। इस कारण उनके बड़े पन के लक्षण बचपन में ही दिखाई देने लगे थे। रामचंद्र जी परिश्रमी तथा पढ़ाई में सदा ही आगे रहते थे। इस कारण सब लोग तथा अध्यापक उनसे बहुत प्यार करते थे।
संस्कृत अध्ययन :-
आपको संस्कृत पढ़ने की इच्छा थी, इसलिए आप ने लाहौर में उपदेशक विद्यालय खुलते ही वहां प्रवेश ले लिया। यहां आपने बड़ी निष्ठा से संस्कृत तथा वेद का पाठ आरंभ किया। शीघ्र ही आप सब प्रकार की आस शिक्षा में निपुण हो गए। आप फुर्ती, धैर्य और साहस की मूर्ति थे, तथा सुगठित शरीर के कारण सबके आकर्षण का केंद्र थे। 1928 ईस्वी में हुई प्रांतीय स्तर की प्रतियोगिता में आप प्रथम रहे। यह उनकी जीवन पद्धति की विजय थी किंतु आपको किंचित भी अभिमान नहीं था।
लाहौर में अध्यापन :-
जब लाहौर के इस विद्यालय में एक अध्यापक की आवश्यकता हुई तो चयन प्रक्रिया में दो गुट बन गए। किसी का भी चुनाव नहीं हो पा रहा था, किंतु आपका नाम आते ही सब सहमत हो गए। अब आप वेद प्रचार अर्थ भी जाने लगे। इन्हीं दिनों आपको भयंकर ज्वर हो गया, जिसे बड़े-बड़े डॉक्टर ठीक ना कर सके। जब स्वामी स्वतंत्रानंद जी को पता लगा तो आपको लुधियाना के गांव लताला बुलाकर वहां के डेरे में रखकर इलाज किया गया। 1 सप्ताह में ठीक होने पर आप फिर लाहौर चले गए। स्वामी जी ने आप के अध्यक्ष शिक्षा की व्यवस्था की तथा आप एक अच्छे चिकित्सक बन गए।
दीनानगर में आगमन :- जब दीनानगर में स्वामी स्वतंत्रानंद जी ने दयानंद मठ की स्थापना की तो आपको दीनानगर बुला लिया तब से मृत्यु तक आप यहीं पर रहकर देश भर में आर्य समाज का प्रचार करते रहे तथा यहां जब उपदेशक विद्यालय स्थापित हुआ तो इस विद्यालय में भी संस्कृत पढ़ाते रहे।
गौ सेवा :-
आप एक सच्चे गौ भक्त थे तथा घंटों गाय की सेवा करते तथा उनसे बातें करते रहते थे। आप गाय के दूध , दही, मक्खन, लस्सी, गोमूत्र व गोबर के उपयोग से परिचित थे कथा इन सब से भी लोगों के उपचार किए। यहां तक कि मंदबुद्धि को भी ठीक किया और साथ ही बनाया। आपकी मेहनत व उपचार की आदत को देखते हुए मठ में आपके लिए तनुपा औषधालय आरंभ किया गया। जहां से आज भी देश भर के रोगी लाभ उठा रहे हैं। इस मठ के माध्यम से देश की आजादी के लिए भी भरपूर कार्य किया गया। मुस्लिम परिवारों पर भी मठ में चल रहे सेवा कार्यों का प्रभाव पड़ा।
संन्यास की दीक्षा :-
1 मई 1955 को आपने मठ में ही संन्यास की दीक्षा स्वामी वेदानंद तीर्थ जी से ली तथा तब से आपका नाम स्वामी सर्वानंद सरस्वती हुआ। आप बहुत हंसमुख होने के कारण हास्य विनोद में ही सब बातचीत करते थे। स्वामी जी ने छोटे-छोटे टोटके बना रखे थे, जिनके माध्यम से गहन ज्ञान देते थे। जैसे भले बुरे की पहचान कैसे हो, ईश्वर की कृपा, भिक्षा कैसे प्राप्त की जाए आदि।
हिंदी सत्याग्रह में योगदान :-
आपने हिंदी सत्याग्रह में खूब भाग लिया। गोरक्षा सत्याग्रह के लिए भी खूब काम किया। करोल बाग दिल्ली में जो सत्याग्रह शिविर बनाया गया, उसका आपको सर्बाधिकारी बनाया गया। बाद में आप भी सत्याग्रह कर जेल चले गए। आर्य समाज के प्रचार के लिए आपने अनेक पत्र यात्राएं भी की। आपने वैदिक यदि मंडल स्थापित किया। इसका प्रधान आपको ही बनाया गया। परोपकारिणी सभा अजमेर के प्रधान रहे । आर्य समाज के अनेक सम्मेलनों में भाग लिया तथा इनके सभापति भी बनाए गए।
त्याग की भावना :-
स्वामी जी कभी धन को छूना पसंद नहीं करते थे। आने वाले स्वामी जी के चरणों में माथा टेकते तो यह पैसा मठ में किसी ब्रह्मचारी के माध्यम से दानपात्र मैं डलवा देते। स्वामी जी लोगों के बड़े बड़े झगड़े भी बड़ी सरलता से मिटा देते थे। इस कारण क्षेत्र भर के लोग अपने झगड़ों को निपटारा करने स्वामी जी के पास आते थे।स्वामी जी रोगी की सेवा करना धर्म समझते थे तथा उनकी गंदगी उठाने में भी उन्हें आनंद आता था। स्वामी जी कुटिया के पास नीचे ही सोते थे। अनेक बार सांप आदि उनके पास आकर घूमते रहते परंतु स्वामी जी ने भी कभी उन्हें कुछ नहीं कहा और सांप ने भी कुछ नहीं किया।
आर्य समाजों में योगदान :-
आर्य समाज का काम करते हुए स्वामी जी का संपर्क बड़े-बड़े लोगों से हुआ। बड़े-बड़े कार्य किए किंतु स्वामी जी ने सब की बात मानी, सबसे अपनी बात कही और जीवन भर भरपूर सेवा की। स्वामी जी सेवा करते हुए बड़े छोटे में अंतर नहीं करते थे। स्वामी जी की दृढ़ प्रतिज्ञा के कारण बड़ों बड़ों का मन बदल गया। इतना कुछ करते हुए भी आपने कभी सम्मान की इच्छा नहीं की।एक बार आर्य प्रतिनिधि सभा हिमाचल ने आप के सम्मान के लिए शिमला में व्यवस्था की किंतु आप इस सभा में गए ही नहीं। आप सच्चे अर्थों में साधु थे। इस कारण कभी भी बार-बार एक ही घर में भोजन नहीं करते थे। असत्य बोलना और और असत्य सुनना पसंद नहीं करते थे। जब एक व्यक्ति का यज्ञोपवीत नहीं था तो उसे दिखा देना से मना कर दिया।रोहतक का एक व्यक्ति जब वानप्रस्थ की दीक्षा लेने आया तो स्वामी जी ने पूछा वानप्रस्थ लेकर क्या करोगे तो उसने कहा ट्यूशन करूंगा। तो स्वामी जी ने तत्काल कहा कि जहां पहले ट्यूशन करा ले। उसे दीक्षा नहीं दी।
निर्वाण :-
इस प्रकार निरंतर जन-जन की सेवा करने वाले स्वामी सर्वानंद जी लगभग 104 वर्ष की आयु में सन 2004 ईस्वी को अपना यह नश्वर शरीर छोड़कर विदा हुए। स्वामी जी की याद में आज भी दयानंद मठ में उनका स्मृति दिवस मनाया जाता है।
अद्भुत
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