जीवन में सर्वस्व को सार्थक करने वाला परम उत्कृष्ट तत्व पवित्र प्रेम ही है। इसे पाजाना ही पूर्णता की सिद्धि है। यह पवित्र प्रेम इतना महान है, इतना श्रेष्ठ है कि सर्वसाधारण की धारणा शक्ति वहां तक पहुंच ही नहीं पाती। इसे संसार की बड़ी से बड़ी वस्तु के द्वारा भी कोई नीचे उतार नहीं सकता। इसके साथ असीम करुणा, अकथनीय दया तथा अटूट धैर्य, अथक परिश्रम, पूर्ण सहिष्णुता, विनम्र सहानुभूति, सत्त्ता प्रसन्नता आदि दैवी संपत्ति सहायक रहती है। पवित्रा प्रेम किसी से कहीं भी पराजित नहीं होता। इसका वर्णन विविध भावना अनुसार प्रायः सभी सात्विक जन करते ही रहते हैं, फिर भी यह अकथनीय ही सिद्ध होता है ।
प्रेम हृदय की वस्तु है परम गुह्य अनमोल ।
कथनी में आवै नहीं सके न कोऊ तोल ।।
जिस प्रकार संसार में मनुष्य को आत्मज्ञानी बनाने वाली पवित्र श्रद्धा है, उसी प्रकार मनुष्य को आत्मा दानी बनाने वाला यदि कोई है, तो एकमात्र पवित्र प्रेम ही है । आत्मा दान के आनंद से ही प्रेम की महत्ता का दर्शन होता है और प्रेमी के हृदय में परमात्मा के योग से ही आनंद की मेहता अनुभूत होती है।
एक पवित्र प्रेम के अतिरिक्त तुम्हारे पास और कुछ भी नहीं रहना चाहिए, क्योंकि अपने प्रियतम प्रभु से तुम सब कुछ से अलग होकर ही मिल सकोगे।
सच्चे प्रेम में तो प्रेमास्पद के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए हृदय में स्थान ही नहीं है। वहां तो प्रियतम के लिए ही संग्रह, उनके लिए ही त्याग, उन्हीं के लिए जीवन और उन्हीं के लिए मरन आदि सब कुछ है। सच्चे प्रभु प्रेमियों ने यही किया है -
चढ़ा मनसूर सूली पर पुकारा इश्कबाजों को ।
यह उसके बाम का जीना है आए जिसका जी चाहे ।।
प्रेम की राह में चलने वाला वीर साधारण आघातों, पीड़ाओं कि कौन कहे, वह तो मृत्यु से भी अभय रहता है, क्योंकि उसने जन्म और मृत्यु के रहस्य को जान लिया है। वह जानता है कि मृत्यु आवागमन के चक्कर में पड़े रहने वाले के लिए बेशक भयप्रद हो, परंतु मुझे तो इसमें अपने जीवन की अति शीघ्र विजय दिखाई देती है। विजय की इसी खुशी में सच्चा प्रभु प्रेमी कह उठता है -
मौत यह मेरी नहीं मेरी कजा की मौत है ।
क्यों डरूं इससे कि जब मर कर नहीं मरना मुझे ।।
यदि तुम सच्चे प्रेमी हो, तो संसार की सारी सुखद संपत्ति पाकर भी तुम्हारे ह्रदय में अपने प्रियतम के योग की लालसा बनी रहे। प्रेमास्पद का ऐसा चिंतन, स्मरण चलता रहे की पुनः दोबारा स्मरण करने की आवश्यकता ही ना रहे । सच्चे प्रेमी की स्थिति का वर्णन करते हुए किसी ने कहा है -
तीन लोक की संपदा, इंद्र भवन को राज।
प्रेमी तृण समलखत तिहिं, तजत प्रेम के काज ।।
सच्चा प्रेम सबको, अपितु असुंदर को भी सुंदर बनाता है। यह प्रेम ही है जो छोटों के प्रति दया के रूप में, सम व्यस्कों के प्रति स्नेह के रूप में, दुखियों के प्रति सहानुभूति के रूप में और अपने से जो श्रेष्ठ है अथवा जहां हमारी बुद्धि चुप हो जाती है, उनके प्रति श्रद्धा के रूप में, इससे ऊपर जहां से हमारी सभी प्रकार की शक्तियों का जन्म और जहां पर लय होता है, उन सर्वोपरि परम तत्व परमात्मा के प्रति यही प्रेम, भक्ति के रूप में दिखाई देता है।
जो व्यक्ति परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हो और अपने सांसारिक प्रिय संबंधियों की थोड़ी प्रतिकूलता या अवज्ञा होने पर ही असंतुष्ट हो जाते हों, क्रोधित होकर कठोरता पूर्वक कटु शब्दों का प्रयोग करते हो, तो समझ लो कि ऐसे व्यक्ति पवित्र प्रेम से अभी बहुत दूर है।
जो व्यक्ति भय अथवा लोग बस किसी से स्नेह करते हैं और किसी को भय तथा लालच दिखाकर उससे स्नेह चाहते हैं, बेबी पवित्र प्रेम की सीमा से दूर हैं। जो व्यक्ति स्वर्ग के लालच बस और नरक के दुख दर्द से भयातुर होकर भगवान की आराधना करते हैं, वे भी सच्चे प्रेमी नहीं हैं।जो व्यक्ति अपने प्रियतम प्रभु की उपासना के बदले में किसी प्रकार की सिद्धि चाहते हैं और मिलने पर मनुष्यों के सामने उसका प्रदर्शन करते हैं, देवी पवित्र प्रेम की विशाल भूमि से नीचे उतर आते हैं।
इसके विपरीत जिसने प्रदर्शन के लिए लोगों से प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए नहीं अपितु केवल अपनी आत्मा की तृषा को शांत करने के लिए प्रभु प्रेम का प्याला मुंह से लगा लिया, भोग विलास के हलाहल को वही अपने होठों से दूर रख सकता है। सच्चा प्रभु प्रेमी जानता और मानता है कि सांसारिक पदार्थों के प्रति जितना ही अनासक्ति कहां भाग दृढ होगा, उतना ही उसमें प्रगाढ़ प्रेम की स्थिति होगी और जितना अधिक निष्कामता होगी उतनी उच्चतम परितृप्ति का उसे अनुभव होगा। उसकी वाणी से अनायास काव्यधारा नि:सृत होने लगती है -
जा घट प्रेम न संचरे, ता घट जानु मसान।
जैसे खाल लोहार की, स्वास लेत बिनु प्राण ।।
मक्का मदीना द्वारिका, बद्री और केदार।
बिना प्रेम सब झूठ है, कहे "मलूक" विचार ।।
शास्त्र पठ्यो पंडित भयो, या मौलवी कुरान।
जु पै प्रेम जान्यो नहीं, कहा कियो रसखान ।।
प्रेम में बराबर योग ना, प्रेम बराबर ध्यान।
प्रेम भक्ति बिन साधना, सब ही थोथा जान ।।
प्रभु का सच्चा प्रेमी प्रभु के प्रेम में मगन होकर और उस परम देवी के सानिध्य से ज्ञानदीप को जलाकर उसके उज्जवल प्रकाश से तत्व बोध प्राप्त करने के पश्चात इस अनुभूत सत्य को प्रकट करते हुए यह उठता है कि -
वह जीवन निरर्थक है, जिसके साथ पवित्र प्रेरणा नहीं होती।
वह प्रेरणा अंधी है, जिसके साथ यथार्थ ज्ञान नहीं होता।
वह ज्ञान भी पंगु है, जिसके साथ तदानुसार प्रयत्न नहीं होता, अर्थात श्रम नहीं होता।
वह प्रयत्न-श्रम नि:सार है जिसके साथ पवित्र प्रेम नहीं होता।
प्रभु प्रेम का आनंद लाभ उठाने वाला झूम झूम कर कहता है -
प्रेम देव के दरश से, सब बंधन कटि जाए ।
ममता मान सबै नसै, उर अति आनंद छाए ।।
और अपना आपा प्रभु को अर्पण करते हुए वह कह उठता है -
मेरे परम आधार प्रेममय, प्रियतम सत् चित् आनंदघन तुम।
मेरे तुम ही ज्ञान अरु गायन, मेरे चिंतन और मनन तुम ।।
मेरे मन की अनुपम निधि तुम मेरे उर के अकथ कथन तुम।
मेरे साध्य और सब साधन व्रत उपासना और भजन तुम ।।
मेरी निर्बलता में बल तुम, मेरी प्रतिभा के प्रवचन तुम।
मेरे तमसाच्छन हृदय के , हो प्रकाश आनंद सदन तुम ।।
मेरे हित विष में अमृत तुम, मेरे अंतिम सुहृद स्वजन तुम ।
मेरे हृदय स्थल की क्रीड़ा, मेरे जाग्रत और सपन तुम ।।
मेरे प्राणों में जीवन तुम, मेरी गतिविधि हृदय रमन तुम ।
मैं हूं पथिक तुम्हीं में अर्पण, मेरे स्वामी सरबस धन तुम ।।
(साधु वेश में 'एक पथिक')
प्रभु का सच्चा उपासक यह मानता है कि कोई श्रद्धावान् जिज्ञासु ही सत्य का साक्षात्कार कर पाता है और सच्चा प्रेमी भी वही है, जिसे अपने लिए कुछ भी आवश्यकता ना हो । सच्चे प्रेमी को बीते हुए का स्मरण नहीं आता, भविष्य की चिंता नहीं रहती और वर्तमान में प्रेमास्पद के अतिरिक्त कहीं भी चैन नहीं मिलती।
सांसारिक पदार्थों के भिक्षुक तो बहुत हैं, लेकिन परम प्रभु का ग्राहक - चाहने वाला कोई बिरला भाग्यशाली ही होता है जो परम प्रभु से परम प्रभु को प्राप्त करा देने वाले सत्य ज्ञान और सत्कर्म की ही भिक्षा मांगता है और अपने चंचल मन को समाहित करता हुआ भक्ति भाव में निमग्न होकर गाने लगता है -
हारना कैसा हृदय से जब ह्रदय का हार सौंपा।
मान जीवन आपको सानंद जीवन भार सौंपा।
आज अंतर की सु वीणा का तुम्हें ही तार सौंपा।
कर लिया एकत्र सारे विश्व भर का प्यार सौंपा।
प्यार क्या करता मिले जब आप जैसे प्राण प्यारे।
जो सहारे आप के हारे हुए जीते, ना हारे ।।
बहुत सराहनीय लेख
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